क्यों मनोज कुमार मरते मरते भी अमिताभ के लिए कह गए इतनी बड़ी बात!..

आंखों का हंसना भी क्या जिन आंखों सिनेमा की इस चमचमाती दुनिया में जहां हर कोई रोशनी के पीछे भागता है एक ऐसा इंसान भी था जिसने रोशनी से ज्यादा देश की मिट्टी को पर्दे पर उतारने में यकीन किया नाम मनोज कुमार वो नाम जो सिर्फ एक अभिनेता नहीं था एक विचार था एक भावना था एक पूरा का पूरा भारत था उन्होंने पर्दे पर देशभक्ति को सिर्फ निभाया नहीं जिया था हर डायलॉग में तिरंगे की गरिमा हर दृश्य में देश की पीड़ा और हर किरदार में एक सच्चा नागरिक झलकता था मनोज कुमार ने ना सिर्फ खुद को महान बनाया बल्कि ऐसे चेहरों को भी मंच दिया जो आज सुपरस्टार कहलाते हैं.

वो किसी को उंगली पकड़ कर सिनेमा के दरवाजे तक नहीं लाए वह तो पूरे का पूरा दरवाजा खोलकर सामने खड़े हो जाते थे और कहते थे आओ तुम में हुनर है दुनिया को दिखाओ उनमें वह नजर थी जो छुपे हुए हीरे पहचान लेती थी लेकिन क्या हुआ उस इंसान के साथ जिसने दूसरों के करियर की नींव रखी वह खुद अकेला रह गया भीड़ के बीच भी खामोश शोर के अंदर भी बेसुरा जी हां मनोज कुमार जिनके नाम के आगे लोग भारत कुमार जोड़ देते थे वह अपने आखिरी वक्त में एक टीस लेकर चले गए एक नाम जो शायद सबसे गहराई से उनके दिल में चुभता रहा.

अमिताभ बच्चन उन्होंने उन्हें अपनी फिल्म रोटी कपड़ा और मकान में बड़ा ब्रेक दिया लेकिन बदले में एक साधारण सा थैंक यू भी कभी नहीं सुनाई दिया मनोज कुमार के लिए यह सिर्फ एहसान नहीं था यह भरोसा था एक सपोर्ट एक भाईचारा लेकिन जब अमिताभ बुलंदियों पर पहुंचे तो उनके जिक्र में मनोज कुमार की जगह नदारद रही यह वही कसक थी जो मनोज कुमार अपने इंटरव्यूज में दबे शब्दों में बयां करते थे और शायद वही दर्द उनकी रगों में आखिरी सांस तक बहता रहा कभी सोचा है आपने देश को इतने गर्व देने वाला भारत कुमार अपने लिए गर्व के दो शब्द तरसता रहा 4 अप्रैल की वह सुबह समय 3:30 बजे सड़कें खामोश थी शहरों की रफ्तार थमी हुई थी और पूरा देश गहरी नींद में डूबा हुआ था लेकिन ठीक उसी वक्त एक खामोश हलचल ने दुनिया की आत्मा को झकझोर दिया एक दिल ने धड़कना बंद कर दिया और उसके साथ ही थम गई एक पूरी पीढ़ी की आवाज मनोज कुमार भारत कुमार अब इस दुनिया में नहीं रहे.

यह खबर आई नहीं जैसे दिलों में सीधी उतर गई वो इंसान जिसने फिल्में सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि समाज का आईना बनाकर बनाई थी सुन सुन क्या कहे ये तुमसे सुन सुन एक तारा बोले सुन जिसने रोटी कपड़ा और मकान के जरिए सिनेमा को जन आंदोलन का माध्यम बना दिया था अब खुद एक कहानी बन चुका था एक अंतिम कहानी लेकिन अजीब बात है उनके जाने की खबर जितनी खामोश थी उससे भी ज्यादा गूंजता हुआ था वो एक नाम जो उन्होंने अपनी आखिरी सांसों में लिया अमिताभ बच्चन और यह नाम किसी प्यार किसी शुक्रिया या दोस्ती में नहीं लिया गया बल्कि एक ऐसी गहरी कसक में डूबा था जो बरसों से उनके सीने में चुपचाप जलती रही और जाते-जाते वह आग शब्द बन गई कहते हैं ना जब कोई इंसान दुनिया छोड़ता है.

तो उसके होठों पर वही नाम होता है जिससे या तो बहुत मोहब्बत रही हो या फिर बहुत दर्द मनोज कुमार के लिए अमिताभ बच्चन शायद वही अधूरी उम्मीद थी वही शिष्य जिसने अपने गुरु को मंच पर अकेला छोड़ दिया उन्होंने उसे मंच दिया मौके दिए लेकिन बदले में जो मिला वह थी खामोशी बेरुखी और एक नजदीकी रिश्ते की टूटन उनकी रूह शायद इसलिए बेचैन थी क्योंकि दुनिया ने उनके योगदान को सराहा लेकिन जिन्हें उन्होंने बनाया उन्होंने शायद कभी पलट कर उन्हें देखा तक नहीं साल था 1974 हिंदुस्तान बदल रहा था सड़कें बेरोजगार की आहट से गूंज रही थी.

नौजवानों के हाथों में डिग्रियां थी लेकिन काम नहीं और सिनेमा वो बन गया था जनता की आवाज उसी दौर में आई एक फिल्म रोटी कपड़ा और मकान एक फिल्म जो महज कहानी नहीं थी बल्कि भूख से बिलबिलाते उस देश की चीख थी जो अपने बच्चों को भरपेट खाना तन ढकने को कपड़ा और सिर पर छत देने को तरस रहा था इस फिल्म ने न सिर्फ समाज को झकझोरा बल्कि सिनेमा को एक नई जिम्मेदारी सौंपी और इसी फिल्म ने एक ऐसे शख्स को पहली बार बड़े पर्दे पर मजबूत जगह दी जो आने वाले वक्त में महानायक कहलाएगा अमिताभ बच्चन लेकिन एक और किरदार था जिसने पर्दे पर तो किरदार निभाया मगर असल जिंदगी में वह निर्माता निर्देशक और सपनों का शिल्पकार भी था.

मनोज कुमार मनोज कुमार भारत कुमार नहीं बने थे बल्कि उन्होंने इस देश के संघर्ष आत्मसम्मान और उम्मीद को एक फिल्म की शक्ल दी थी उन्होंने खुद को पर्दे पर भी जिया और पर्दे के पीछे दूसरों को जीवन दिया उन्होंने अमिताभ को उस वक्त मंच दिया जब उन्हें कोई पहचानने तक को तैयार नहीं था उनकी नजर में कुछ खास था उस लंबे गंभीर चेहरे में और उन्होंने उस खास को एक मौका दिया लेकिन सवाल यह नहीं है कि उन्होंने मौका दिया सवाल यह है क्या कभी उस मौके की गूंज अमिताभ बच्चन के शब्दों में सुनाई दी क्या कभी किसी मंच से किसी मंच पर मनोज कुमार का नाम लिया गया उस एहसान के लिए वक्त बीतता गया अमिताभ बुलंदियों की ऊंचाई छूते गए और मनोज कुमार धीरे-धीरे इंडस्ट्री की भीड़ में खोते चले गए.

उनके भीतर एक खामोश उम्मीद थी कि शायद किसी दिन किसी इंटरव्यू में उनका नाम अमिताभ के होठों से निकलेगा एक शुक्रिया एक मुस्कुराहट एक जिक्र लेकिन वो दिन कभी नहीं आया कि अगर चंपा का यह रिश्ता टूट गया तो उनकी आत्मा को सुख नहीं मिलेगा वक्त बीत चुका था स्टेज की रोशनी किसी और के चेहरे पर थी कैमरों की फ्लैश किसी और की तरफ मुड़ चुकी थी और जिन चेहरों को कभी उन्होंने खुद स्क्रीन पर उतारा था वो अब उन्हीं के नाम को भूल चुके थे सालों बाद एक शांत दोपहर में जब कैमरा एक बार फिर मनोज कुमार के सामने सेट किया गया तो सवाल आया एक ऐसा सवाल जो किसी तलवार की तरह सीधा उनके सीने में उतर गया क्या आपको लगता है कि इंडस्ट्री आपको भूल गई है.

मनोज कुमार मुस्कुराई नहीं ना कोई बनावटी जवाब दिया बस आंखें वो बहुत कुछ कह गई थोड़ी थकी हुई थोड़ी नम जैसे बरसों से कुछ कहना चाहती थी लेकिन मौन ओढ़े रही और फिर आई वो आवाज धीमी शांत और बेहद भारी मैं ज्यादा सोचता नहीं लेकिन जब वो एक्टर्स जिनको मैंने मौके दिए जब वह इंटरव्यूज में मेरा नाम तक नहीं लेते तो तकलीफ होती है यही था वह सच जो किसी चीख की तरह नहीं निकला बल्कि एक रुक-रुक कर बहती सांस में बदल गया उनका दर्द बहुत साफ था वह नाम नहीं ले रहे थे लेकिन उनकी आंखों में जो अनकहा तैर रहा था वो नाम उसी में दर्ज था अमिताभ बच्चन और जब उन्होंने यह कहा मैंने उन्हें मौका दिया लेकिन उन्होंने मुझे कभी याद नहीं किया तो वह सिर्फ एक लाइन नहीं थी वह एक युग की शिकायत थी एक साइलेंट क्राई थी उस इंसान की जिसने अपने करियर के सबसे सुनहरे पलों में भी किसी और के सपनों को हराभरा किया ख्वाब के धुंधले शहर में अक्सर एक परछाई फिरती है वो इंतजार करते रहे कि कभी कहीं कोई मंच पर कोई इंटरव्यू में कोई अवार्ड शो की स्पीच में उनका नाम लिया जाएगा लेकिन शायद कुछ रिश्ते सिर्फ एक तरफ़ा होते हैं.

मनोज कुमार को लोग एक अभिनेता के तौर पर याद करते हैं कुछ उन्हें भारत कुमार कहते हैं कुछ उन्हें देशभक्ति का चेहरा मानते हैं लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि उनके अंदर एक और हुनर छुपा था टैलेंट को पहचानने की नायाब नजर वो सिर्फ कैमरे के सामने अभिनय नहीं करते थे वह कैमरे के पीछे ही को तराशने वाले जहरी थे उनकी आंखें ऐसे हुनर को भी पहचान लेती थी जो अभी खुद को भी नहीं पहचानता था स्मिता पाटिल आज उनका नाम अभिनय की गहराइयों और संजीदगी के लिए जाना जाता है वह कभी सिनेमा से दूर थी और शायद अगर मनोज कुमार की निगाहें उन पर ना पड़ी होती तो स्मिता वो स्मिता शायद कभी पर्दे पर ना आती यह बात खुद मनोज ने एक इंटरव्यू में साझा की थी.

जब शर्मिला टैगोर ने मेरी फिल्म शोर छोड़ दी थी तो मैंने वह रोल स्मिता को ऑफर किया अब जरा ठहरिए और सोचिए वो रोल जो पहले एक स्थापित अभिनेत्री निभाने वाली थी मनोज कुमार ने बिना किसी संकोच बिना किसी शक के एक नई लड़की को देने का सोचा जो तब अभिनय में आने की इच्छुक भी नहीं थी लेकिन मनोज जानते थे स्मिता की आंखों में कुछ है उनके चेहरे में एक खामोश करिश्मा है जो आने वाले वक्त में पर्दे पर छा जाएगा स्मिता ने विनम्रता से मना कर दिया कहा कि उन्हें अभी एक्टिंग में दिलचस्पी नहीं है पर वह मना भी मनोज कुमार की सोच की गहराई को बयां कर गई यह वही बारीकी थी जो हर किसी के पास नहीं होती जहां बाकी लोग सिर्फ चेहरे देखते थे मनोज कुमार उनमें किरदारों की परछाइयां खोज लेते थे अब सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों हुआ क्यों मनोज कुमार जैसा नाम जिसने ना सिर्फ फिल्मों में देश की आत्मा बसाई बल्कि दूसरे कलाकारों के सपनों को भी पंख दिए उन्हीं कलाकारों की जुबान पर कभी धन्यवाद बनकर क्यों नहीं उभरा क्या यह बस एक अनजाने में हुई भूल थी या फिर इंडस्ट्री की वो बेरुखी जो वक्त के साथ हर दिग्गज का पीछा करती है.

मनोज कुमार कोई मामूली कलाकार नहीं थे उन्होंने उन लोगों को मंच दिया जिनके बिना आज हिंदी सिनेमा की कल्पना भी अधूरी लगती है फिर भी जब वो मंचों पर बैठे तो तालियां किसी और के लिए बजी जब अवार्ड शोज़ में जिंदगी भर का योगदान देने की बात हुई तो उनकी कुर्सी खाली रही जब स्पीच में प्रेरणा स्त्रोतों का जिक्र हुआ तो उनका नाम किसी ने नहीं लिया क्यों क्या यह इस इंडस्ट्री का दस्तूर है कि जो सितारे चढ़ते हैं वह उन्हें सीढ़ियों को भूल जाते हैं जिन पर चढ़कर ऊपर पहुंचे थे या फिर यह भीड़ भरी चमकदार दुनिया सिर्फ उसी को पहचानती है जो इस वक्त चमक रहा हो मनोज कुमार का दर्द इसी अनकही सवाल में था उन्होंने कभी खुलकर शिकायत नहीं की लेकिन उनकी खामोशी उनके जले हुए शब्द उनकी टूटी उम्मीदें सब कुछ बयां करती थी.

उनका नाम जब खुद उनके जमाने के लोग ही मंचों पर ना ले तो नए कलाकारों से क्या उम्मीद की जाए शायद यही वो टीस है जो हर इस इंसान के साथ चलती है जिसने औरों को रोशनी में रखा और खुद अंधेरे में डूब गया कुछ लोग सिर्फ फिल्में नहीं बनाते वह इतिहास गढ़ते हैं उनके किरदार सिर्फ पर्दे तक सीमित नहीं रहते बल्कि लोगों के दिलों में देशभक्ति की लौ बनकर जलते हैं मनोज कुमार ऐसे ही एक कलाकार थे उपकार में उन्होंने एक भाई के जरिए देशभक्ति का मतलब सिखाया पूर्व और पश्चिम में उन्होंने दिखाया कि भारतीय संस्कृति सिर्फ एक परंपरा नहीं एक गर्व है शहीद में भगत सिंह का दर्द उनका जोश और उनका बलिदान ऐसा जीवंत किया कि लोग स्क्रीन से निकलकर उस आंदोलन का हिस्सा बनना चाहते थे.

फिर आई रोटी कपड़ा और मकान एक ऐसी फिल्म जिसने भारतीय मध्यम वर्ग की सबसे कड़वी सच्चाई को कविता और क्रांति दोनों में ढाल दिया इन फिल्मों ने मनोज कुमार को महज एक हीरो नहीं बल्कि एक विचार एक आइडियल एक प्रतीक बना दिया दूसरों को हंसाने के लिए आसमान की ऊंचाई से जानबूझकर गिरता है लोगों ने उन्हें प्यार से एक नाम दिया भारत कुमार और यह नाम सिर्फ एक उपाधि नहीं था बल्कि पूरे देश की तरफ से दिया गया सम्मान था एक भरोसा था कि जब भी मनोज कुमार पर्दे पर आएंगे तो देश की बात होगी आत्मा की बात होगी और जमीर जागेगा लेकिन वही भारत कुमार जिसने देश के हर दर्द को अपने संवादों में उतारा जिसने हर फिल्म को समाज के लिए एक आईना बनाया वो अपनी आखिरी रात खुद एक अधूरे दर्द का पात्र बनकर सो गया मनोज कुमार की अंतिम सांसों में ना कोई तालियां थी.

ना कोई स्टेज लाइट्स ना ही वह चेहरे जिनके लिए उन्होंने कभी दरवाजे खोले थे वो चुपचाप चले गए एक ऐसी खामोशी में जो हर उस इंसान को भीतर तक झकझोर देती है जो कभी किसी और की रोशनी बन चुका हो कभी सोचा है जिस इंसान को हम भारत कुमार कहते थे उसका अंत इतना अकेला क्यों था शायद इसलिए कि जो लोग दूसरों को रोशन करते हैं वह अक्सर खुद को जलाकर ही ऐसा करते हैं आज जब इंडस्ट्री के बड़े-बड़े नाम Twitter पर दो पंक्तियां लिख रहे हैं instagram स्टोरी में आरआईपी डाल रहे हैं और मंचों से श्रद्धांजलि जैसे शब्द कह रहे हैं.

तो एक सवाल भी हवा में तैर रहा है बहुत नरम और बहुत तीखा क्या अमिताभ बच्चन कभी इस टीस को समझ पाएंगे क्या वह कभी खुद से यह सवाल करेंगे कि जिस मंच पर वह आज खड़े हैं क्या उसके नीचे की नींव किसी और ने डाली थी क्या कभी वह कैमरे के सामने या अकेले कमरे में मनोज कुमार के लिए एक शुक्रिया महसूस करेंगे क्या कभी वह कहेंगे हां मेरे करियर की शुरुआत अगर किसी ने सलीके से की थी तो वह मनोज कुमार थे.

शायद नहीं या शायद वह अब कहना भी चाहे तो वक्त हाथ से फिसल चुका है मनोज कुमार चले गए चुपचाप बिना किसी शोर के लेकिन जाते-जाते वो एक सवाल छोड़ गए एक ऐसा सवाल जो इस चमकदार इंडस्ट्री की रगों में रिसता रहेगा क्या सिनेमा सिर्फ नाम का खेल है या एहसान का भी कोई मोल होता है क्या यह इंडस्ट्री सिर्फ उन लोगों की होती है जो लाइमलाइट में हो या फिर उन हाथों की भी कोई अहमियत होती है जिन्होंने पर्दे के पीछे से स्पॉटलाइट की दिशा तय की अगर आपने कभी मनोज कुमार की कोई फिल्म देखी है उपकार शोर पूरब और पश्चिम या रोटी कपड़ा और मकान तो एक बार ठहरिए एक पल के लिए आंखें बंद कीजिए और उस आदमी को याद कीजिए जिसने पर्दे पर देश को जिया था लेकिन असल जिंदगी में खुद के लिए सिर्फ तन्हाई चुनी गई सोचिए जिसने दूसरों की जिंदगी संवारी वह खुद अपनी कहानी में इतना अकेला क्यों रह गया क्यों क्योंकि शायद इस इंडस्ट्री में शुक्रिया कहना सबसे मुश्किल काम होता है.

अगर यह वीडियो आपको पसंद आया हो अगर कहीं ना कहीं इस कहानी ने आपके दिल को छुआ हो तो मनोज कुमार के लिए उनकी याद में एक छोटा सा कमेंट जरूर छोड़िए क्योंकि कुछ लोग सिर्फ फिल्में नहीं बनाते वह पूरी एक पीढ़ी को आकार देते हैं बिना कुछ मांगे आज जब हम नए सितारों के नामों से भरे सोशल मीडिया पोस्ट रील्स और अवार्ड शोज़ देखते हैं तो थोड़ा वक्त निकालिए उन नामों के बारे में सोचिए जिन्होंने इन सितारों की पहली रोशनी जगाई थी हर महानायक वो नहीं होता जो स्क्रीन पर सबसे ज्यादा नजर आए कुछ महानायक वो भी होते हैं जो पर्दे के पीछे खड़े होकर दूसरों को रोशन करते हैं और खुद धुंध में खो जाते हैं तो अगली बार जब आप कभी किसी पुराने कलाकार का नाम सुने तो एक पल रुकिए याद कीजिए उनके योगदान को उनके संघर्ष को और उस खामोशी को जो उन्होंने बड़ी शालीनता से जिया क्योंकि शायद किसी का नाम लेना किसी के योगदान को याद करना आपके लिए एक लाइन हो.

लेकिन उनके लिए वो पूरा जीवन है हर महानायक वो नहीं होता जो स्क्रीन पर सबसे ज्यादा नजर आए कुछ महानायक वो भी होते हैं जो पर्दे के पीछे खड़े होकर दूसरों को रोशन करते हैं और खुद धुंध में खो जाते हैं तो अगली बार जब आप कभी किसी पुराने कलाकार का नाम सुने तो एक पल रुकिए याद कीजिए उनके योगदान को उनके संघर्ष को और उस खामोशी को जो उन्होंने बड़ी शालीनता से जिया क्योंकि शायद किसी का नाम लेना किसी के योगदान को याद करना आपके लिए एक लाइन हो लेकिन उनके लिए वह पूरा जीवन है.

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