अंतरिक्ष में लाइका के साथ क्या हुआ?, इस कुत्ते की वजह से आज अंतरिक्ष में जा पा रहा है इंसान..

अंतरिक्ष में अगर आज इंसान जा रहा है तो इसका बहुत श्रेय एक डॉगी को जाता है। उसने हमारे लिए कुर्बानी दी। तब जाकर हमारा अंतरिक्ष में जाना संभव हो पाया। नाम था लाइका। लाइका की जिंदगी अब तक यूं ही सड़कों पर घूमते फिरते कट रही थी। लेकिन यह सब जल्दी ही बदलने वाला था। बात है 1950 के दशक की। इंसान जब भी आकाश की ओर देखता एक हुलस उठती थी। अंतरिक्ष की गहराइयों को हम कब नाप पाएंगे। लिहाजा रॉकेट्स बनाए गए जिनमें बैठकर इंसान अब आकाशगंगाओं का रुख करने वाला था। इसे किस्मत ही कहेंगे कि वैज्ञानिकों ने इस मिशन के लिए लाइका को चुना। वैज्ञानिक यह,

जानना चाहते थे कि स्पेस फ्लाइट का किसी जीवित प्राणी पर क्या असर होता है। 3 नवंबर अंतरिक्ष के इतिहास में अहम दिन है। इसी दिन यानी 3 नवंबर 1957 को रूस ने स्पुतनिक 2 नाम के अंतरिक्ष यान में लाइका नाम की एक डॉगी को अंतरिक्ष में भेजा था। स्पुतनिक 2 में बैठकर उसने धरती के चक्कर भी लगाए थे। लाइका को एक तरह से परीक्षण के लिए भेजा गया था। इस मिशन का एक मकसद यह जानना था कि अंतरिक्ष में किसी इंसान को भेजना कितना सुरक्षित है और वहां की स्थिति कैसी है। दुखद बात यह है कि लाइका ने इस स्पेस मिशन में अहम भूमिका निभाई,

लेकिन वो धरती पर जीवित वापस नहीं आ सकी। सन 1957, सोवियत यूनियन की एक टीम अपने इलाके के बेसहारा फीमेल कुत्तों को पकड़ रही थी। और यहीं से इस अंतरिक्ष यात्रा की नींव पड़ी। स्पेस मिशन के लिए फीमेल कुत्ते पहली पसंद थे। छोटा आकार और मेल कुत्तों के मुकाबले उनका विनम्र स्वभाव इसका कारण थे। बेसहारा कुत्तों को इसलिए चुना गया क्योंकि उन्हें कठिन परिस्थितियों में रहने की आदत होती है और स्पेस मिशन के लिए सोवियत यूनियन को ऐसे ही कुत्तों की जरूरत थी। उनकी ये खोज लाइका पर आकर रुकी। मॉस्को की गलियों में भटक रही छोटी और दुबली पतली सी लाइका,

मिक्स्ड प्रजाति की थी। उसका असली नाम कुदरायवका था। सोवियत स्पेस प्रोग्राम मेडिकल साइंटिस्ट डॉक्टर व्लादिमीर यासदोस थी और उनकी टीम ने जब उन्हें पकड़ा तब उनके रहने का कोई ठिकाना नहीं था लेकिन उनको जल्द ही एक नया घर मिलने वाला था। हालांकि इस नई जगह पर उन्हें रशियन स्पेस मिशन के लिए ट्रेंड किया जाना था। ट्रेनिंग के लिए कुद्राइवका जैसे कई बेसहारा कुत्तों को यूएसएसआर साइंटिस्टों ने पकड़ा। ट्रेनिंग के दौरान लगभग 20 दिनों के लिए बहुत ही छोटी सी जगहों में उन्हें कैद करके रखा गया। अंतरिक्ष यान में बहुत ही कम जगह में सर्वाइव करने के,

लिए उन्हें ऐसी ट्रेनिंग दी जा रही थी। पहले उन्हें थोड़े छोटे पिंजरों में रखा गया। उसके बाद और छोटे पिंजरों में कैद किया गया जहां उनका हिलना डुलना भी मुश्किल हो गया। ऐसी कठिन परिस्थितियों को झेलते-झेलते मानो वो यह भूल ही गए थे कि वो कभी आजाद भी थे। उन्हें कब्ज की शिकायतें होने लगी और दवाइयां दिए जाने पर भी राहत नहीं मिल रही थी। ट्रेनिंग ने कई कुत्तों को काफी बीमार और डरपोक बना दिया। लेकिन कुड ड्राइव का थोड़ी अलग निकली। स्पेस प्रोग्राम की कठिन परिस्थितियों को झेलने में वो सक्षम रही। हालांकि एल्बीना,

नाम की दूसरी फीमेल डॉग साइंटिस्टों की पहली पसंद बनी। अल्बीना को एक बार पहले ही स्पेस के आधे रास्ते तक भेजा जा चुका था। इस मामले में वो कुड ड्राइवका के मुकाबले बेहतर पसंद थी। मगर मानो जिंदगी कुड ड्राइवका से खफा थी। अल्बीना ने उसी दौरान बच्चों को जन्म दिया जिस वजह से उसे इस घातक उड़ान से दूर रखा गया। बैकअप के रूप में उसे रखकर आखिरकार कुड ड्राइवका को मिशन के लिए चुना गया। कुड ड्राइवका और एल्बीना दोनों कुत्तों के शरीर में मेडिकल डिवाइसेस फिट किए गए। इनकी मदद से उनकी शारीरिक हरकतों पर नजर रखा जाना था। इसके,

अलावा उनके ब्लड प्रेशर, हार्ट रेट और ब्रीथिंग रेट की जानकारियां भी इनकी मदद से मिलनी थी। रेडियो की मदद से आम लोगों को कुड ड्राइवका और स्पेस मिशन के बारे में बताया गया। कुड ड्राइवका ने रेडियो पर भौककर अपने आपको लोगों से रूबरू कराया। इस तरह उनका नाम लाइका पड़ा। रशियन भाषा में जिसका मतलब बारकर यानी भौंकने वाला होता है। इस तरह बेसहारा फीमेल डॉग कुड्राइवका को सोवियत स्पेस डॉग लाइका में बदल दिया गया। अंतरिक्ष यान स्पुतनिक दो में एक प्रेशराइज्ड कंपार्टमेंट में लाइका को बैठाकर उन्हें अर्थ की ऑर्बिट में भेजा,

जाना था। जाने का तो ठीक पर स्पुतनिक दो का निर्माण वापस आने के लिए नहीं किया गया था। इस वजह से लाइका का मरना निश्चित था। साइंटिस्टों ने स्पेस में लाइका के लिए सिर्फ 7 दिन के लिए ऑक्सीजन सप्लाई की तैयारी की। वे चाहते थे कि लाइका की मौत बिना ऑक्सीजन के आसानी से हो जाए। एक तरफ जहां सोवियत यूनियन लाइका को इस बड़े प्रोजेक्ट के लिए तैयार कर रहा था, वहीं दूसरी तरफ जानवरों के लिए काम करने वालों ने इस मिशन का विरोध करना शुरू कर दिया। ब्रिटेन ने तो यहां तक इसे राक्षसी और घिनौना बता दिया। प्रेस दिल्ली मिरर ने,

अपना एक आर्टिकल द डॉग विल डाई वी कांट सेव इट। सोवियत यूनियन के इस प्रोजेक्ट को नकारते हुए छापा। कुछ एनिमल राइट्स ऑर्गेनाइजेशंस ने लोगों से सोवियत यूनियन एंबेसीज में शिकायत करने की गुहार लगाई। इन सभी विरोध प्रदर्शनों के जवाब में सोवियत ने कहा कि यह सब वो सिर्फ लोगों की भलाई के लिए कर रहे थे। उनका मकसद जानवरों को प्रताड़ित करने का नहीं था। लाइका की मौत को हालांकि रोका जा सकता था। शुरुआत में सोवियत ने स्पेस में उसके ठीक से रह पाने और उसी हाल में उसको वापस ले आने का प्लान किया था। बदकिस्मती से सोवियत नेता,

क्रशेव ने एक ऐसा फरमान सुनाया जिसकी वजह से साइंटिस्टों को अपने प्लान में तब्दीलियां करनी पड़ी। खुशव चाहते थे कि स्पुतनिक दो को लॉन्च बोल्टशविक रिवॉल्यूशन की 40वीं सालगिरह पर किया जाए। इसके लिए साइंटिस्टों के पास समय कम था। इतने कम समय में उनके लिए एक तरफ़ा विमान बना पाना ही संभव था। बाद में यह डिसाइड हुआ कि लाइका को सिर्फ एक हफ्ता स्पेस में जीवित रखा जाएगा। जिसके बाद उन्हें खाने में जहर देकर आसान मौत दी जाएगी। स्पुतनिक दो को बिना किसी प्रारंभिक डिजाइन के तैयार किया गया। उसका आकार सिर्फ वाशिंग मशीन जितना ही रखा गया। इतनी कम जगह में,

जंजीर से बंधे कुत्ते को सिर्फ बैठने और लेट जाने की ही आजादी थी। सोवियत यूनियन ने भले ही लाइका के लिए मौत को चुना था। मगर कहीं ना कहीं उनके दिल में लाइका के लिए दया थी। डॉक्टर व्लादिमी यादोस्की जिन्होंने पहले ही दिन से लाइका का ध्यान रखा था। उड़ान के कुछ दिन पहले उसे अपने घर ले गए। लाचार कुत्ते को एक आखिरी बार उन्होंने खुला छोड़ दिया और बिल्कुल पालतू कुत्ते की तरह रखा। 3 नवंबर 1957 स्पुतनिक दो को आखिरकार लॉन्च करने का दिन आ ही गया। lका को अंतरिक्ष यान में बैठाया गया। lका ने स्पेस सूट पहन रखा था जो सेंसर्स,

मेटल रेस्टेंट से लैस था। यह स्पेस सूट उसे साफ रखने के लिए भी काम आना था। यान में बैठते ही लाइका को डर लगने लगा। सामान्य गति के मुकाबले उसके दिल के धड़कने की गति तीन से चार गुना बढ़ गई थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। उसके चेहरे से ही लग रहा था कि जैसे उसने यह मान लिया हो कि अब उसका बचना मुश्किल है। वो बेहद ही डरी हुई और सहनी हुई दिखाई दे रही थी। सुखद यात्रा विश करते हुए साइंटिस्टों ने सुबह 5:30 बजे करीब स्पुतनिक दो को लॉन्च किया और बिटmin lका सुरक्षित पहुंच गई। रॉकेट की मदद से स्पेसक्राफ्ट ने टेक ऑफ किया और 162 दिन,

बाद धरती पर लौटा। धरती के 2570 चक्कर लगाने के बाद लाइका ना लौटी। उसकी मौत हो चुकी थी। लाइका की मौत का असल कारण सन 2002 में सामने आया। जब सोवियत वैज्ञानिक दिमत्री मालाशेनको ने वर्ल्ड स्पेस कांग्रेस में सच्चाई से पर्दा हटाया। अंतरिक्ष यान का तापमान बढ़ने के कारण उड़ान के चौथे सर्किट के दौरान 7 घंटे के अंदर ही लाइका की मौत हो गई थी। क्योंकि अंतरिक्ष यान को जल्दी में बनाया गया था इसलिए उसमें तापमान नियंत्रण प्रणाली सही से लगाई नहीं जा सकी थी। जिस वजह से सिस्टम फेल हो गया। स्पुतनिक दो गर्म से गर्म होता गया और 100 डिग्री फारेनहाइट,

तापमान को पार कर गया। अंतरिक्ष यान के अंदर का तापमान काफी बढ़ने के बाद एक बार फिर लाइका भयभीत हो गई और फिर वैज्ञानिकों ने उसकी धड़कन को तेज से तेज होते सुना अंत में उन्होंने उसकी धड़कन को शांत होते सुना स्पुतनिक दो 5 महीने तक अंतरिक्ष में रहा 14 अप्रैल 1958 को जब वो धरती पर लौटने लगा तो विस्फोट के बाद लाइका के अवशेषों के साथ टुकड़ों में बांट गया। लेकिन जो भी हो यह कहना गलत नहीं होगा कि लाइका ने ही इंसानों के अर्थ के ऑर्बिट में जा सकने के दरवाजे खोले। इसी के तीन-4 साल में ही यूरी गैगरिन स्पेस में जाने,

वाले पहले आदमी बन गए। वो सफलतापूक वापस भी आ गए। क्या स्पुतनिक दो मिशन के लिए लाइका की कुर्बानी का फैसला सही था? आपका क्या मानना है? कमेंट सेक्शन में हमें बताएं.

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